Saturday 24 April 2021

पत्रकारिता के चलते फिरते विश्वविद्यालय का यूँ चले जाना…


मुलयनिष्ठ पत्रकारिता के लिए अपना जीवन समर्पित करने वाले प्रो.कमल दीक्षित भले ही अब सशरीर हमारे बीच नहीं हैं। लेकिन वे मूल्यनिष्ठ पत्रकारिता को समर्पित एक विचारधारा के रूप में सदैव हमारे बीच रहेंगे। श्रद्धेय प्रोफेसर कमल दीक्षित के यूँ चले जाने के मायने उनसे जुड़े और उन्हें जानने वाले लोगों के लिए क्या हैं यह शब्दों में बयां करना आसान नहीं। वे महान पत्रकार एवं संपादक, श्रेष्ठ शिक्षक, कुशल संचारक, विचारक, आध्यात्मिक और अद्वितीय व्यक्तित्व के धनि थे। कोई उन्हें मीडिया का इनसाइक्लोपीडिया, तो कोई उन्हें पत्रकारिता का भीष्म पितामाह कहता था। उनका निधन हो जाना मेरे और मेरे परिवार के लिए बहुत बड़ी क्षति है। मैं तो उन्हें पत्रकारिता की दुनिया का चलता फिरता विश्वविद्यालय मानता हूँ। किसी भी समय मेरे हर सवाल का जवाब उनके पास होता था। वे इतने सरल थे कि किसी भी समय उन्हें फ़ोन करते समय कभी कोई हिचकिचाहट महसूस नहीं हुई।

मैं बुधवार (10 मार्च) शाम जब कालापीपल में अपने घर पर कुछ अध्ययन कर रहा था तभी एक फोन पर खबर मिली कि प्रो.कमल दीक्षित जी नहीं रहे। जब यह खबर मुझे मिली तो यकीन नहीं हुआ। इस खबर को सुनते ही जैसे मेरे पैरों के नीचे से जमीन खिसक गई हो। यकीन करना बहुत मुश्किल हो रहा था। लेकिन सच्चाई को कौन नकार सकता है। वे ही तो थे जिनकी वजह से मैं पत्रकारिता में आया। दरसल, पत्रकारिता की ओर मेरा रूख स्कूल की स्कूली शिक्षा के समय से था लेकिन उस इच्छा को बल प्रो.दीक्षित ने ही दिया। वे अपनी मजबूत इच्छाशक्ति के साथ बीते कुछ सालों से कैंसर से जंग लड़ रहे थे लेकिन कैंसर के साथ कोरोना से लड़ते हुए वे हार गए। उनके निधन की खबर मिलने के बाद से आज तक एकाएक अनेक संस्मरण मन में दौड़ रहे हैं। उनसे जुडी यादों को लिखते हुए बहुत भावुक हो रहा हूँ। उनसे मेरा रिश्ता बहुत गहरी आत्मीयता का था।
एक संयोग और ईश्वर का वरदान ही कहूंगा कि मेरा परिचय ऐसे हस्ताक्षर से हुआ। जिनकी वजह से मेरे जीवन में वे बदलाव हुए जिसकी कल्पना भी मैं नहीं कर सकता था। स्कूल की पढ़ाई-लिखाई में मुझ जैसे एक एवरेज स्टुडेंट को उन्होंने ही हिम्मत दी जिसकी वजह से मैंने पत्रकारिता जैसे पेशे को मैंने अपने भविष्य के लिए चुना। पांच साल पहले शाजापुर में साइंस सेंटर (ग्वा). की ओर से आयोजित तीन दिवसीय संचार लेखन कार्यशाला में मेरा परिचय सर से हुआ था। वे वहां बतौर प्रशिक्षक प्रशिक्षण देने आए थे। साइंस सेंटर की वह तीन दिवसीय कार्यशाला तो उसी समय खत्म हो गई लेकिन उनके अंतिम समय तक मुझे उनसे प्रशिक्षण मिलता रहा। उन्होंने ही मेरा एडमिशन माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में करवाया। एडमिशन लेने के बाद से जैसे मैं हर कभी उनके पास जाने लगा और जब भी जाता तो घंटो बैठकर उनसे बातें करता। उनका आकर्षक व्यक्तित्व और व्यवहार था ही ऐसा कि जो एक बार उनसे मिला वह हमेशा के लिए उनका हो गया और दीक्षित सर उनके।
मैं जब कभी विश्वविद्यालय में दिनभर की पढ़ाई के बाद सीधे उनके गुलमोहर स्थित घर जाता तो बड़े प्यार से कहते 'पंडित तू थक गया होगा, आ बैठ... फिर कई बार उन्होंने खुद उनके हाथों से मुझे चाय बनाकर पिलाते तो कभी किचन में जाकर कुछ खाने का ले आते। मेरा उनसे खून का रिश्ता नहीं था। लेकिन जब भी मुझे उनका स्नेह मिलता तो उनमें मुझे अपने दादाजी दिखाई देते। मैं जब भी शाम के समय उनके घर जाता तो कहते पंडित आज साथ खाना खाएंगे। उन्हें पोहा बहुत पसंद था। कहते थे कि मेरा घर जरूर भोपाल में है लेकिन मुझमे इंदौर बसता है।
बातचीत के दौरान कभी वे मुझे उनके बचपन की बातें बताया करते तो कभी उनके पत्रकारिता के अनुभव बताया करते। उनका एक एक किस्सा किसी किताब से मिले ज्ञान से कम नहीं होता। उन्होंने बताया था कि कैसे इंदौर में एक बार उन्हें अखबार के दफ्तर में ही कई दिन गुजारकर लगातार काम करना पड़ा था। मैंने मीडिया की शिक्षा के लिए माखनलाल विश्वविद्यालय में दाखिला जरूर लिया था लेकिन असल शिक्षा मैंने सर से ही प्राप्त की। उनकी हर बात में न केवल पत्रकारिता बल्कि जीवन को भी मूल्यनिष्ठ बनाने की चिंता होती।
जिस उम्र में लोग चारपाई से उतरने के लिए भी किसी के सहारे के लिए तकते हैं उम्र के उस पड़ाव में भी अकेले ही दूर दूर की यात्राएं करते। इसीलिए उनके निधन पर भोपाल से प्रकाशित स्वदेश ने अपनी खबर में कितनी सूंदर हैडलाइन दी 'ओ! यायावर रहेगा याद', उन्हें घूमना फिरना बहुत पसंद था। उन्हें चाहने वाले अक्सर उन्हें इतना प्रवास ना करने और घर पर आराम करने के लिये समझाते लेकिन वे मुस्कुराते हुए कह देते कि जब में आराम करना शुरू कर दूंगा तो स्वयं ही ख़त्म हो जाऊँगा। उन्हें मैंने कभी फ्री बैठे नहीं देखा। वे कभी अपनी पत्रिकाओं राजीख़ुशी के लिए तो कभी मूल्यानुगत मीडिया के लिए निरंतर लिखते हुए मिलते। तो कभी छत पर टहलते हुए किसी ना किसी विषय पर उनका चिंतन हमेशा जारी रहता। माखनलाल विश्वविद्यालय से तो वे कई सालों पहले सेवानिवृत हो गए थे लेकिन विश्वविद्यालय और वहां के विद्यार्थियों की वे हमेशा चिंता करते थे। इस उम्र इतना एक्टिव देख कर बहुत प्रेरणा मिलती थी।
उन्हें बाते करना बहुत अच्छा लगता था। वे मुझसे अक्सर मीडिया, समाज और सामयिक विषयों पर बहुत देर तक बाते करते। जब मैं मीडिया को थोड़ा बहुत जानने और समझने लगा तो उन्होंने मुझे 'मूल्यानुगत मीडिया' की जिम्मेदारी दे दी। मूल्यानुगत मीडिया अभिक्रम समिति की एक बैठक होने के बाद उन्होंने कहा कि अब पत्रिका का काम तुम्हें ही संभालना है। अब मैं सिर्फ एडिटोरियल तुम्हें भेज दिया करूंगा बाकी की चिंता अब तुम्हारी। मैं हैरान था। लेकिन उन पर पूरा भरोसा भी था। उन्होंने कुछ कहा है तो सोच समझकर ही कहा होगा। मैंने उस काम को करना शुरू कर दिया। बतौर उपसंपादक लगभग दो सालों तक मूल्यानुगत मीडिया पत्रिका का संपादन करने का सौभाग्य मुझ नाचीज़ को मिला। जब कभी मेरे शुरूआती दो-तीन महीनों में मूल्यानुगत मीडिया के संपादन में मुझसे कोई गलती हुई तो डांटते हुए मुझसे कहते कि 'तूने इस बार काम को जल्दीबाजी में किया है। बेटा कभी किसी काम में जल्दीबाजी ठीक नहीं होती। मैं तुम्हे लंबी पारी खेलते हुए देखते हुए देखना चाहता हूँ।' अफ़सोस की मेरी किसी अच्छी शुरुआत से पहले ही वे चले गए।
मेरे पास बहुत यादें हैं उनसे जुडी। उनके व्यक्तित्व और उनकी उपलब्धियों के बारे में कितना भी लिखूंगा कम ही होगा। मैं उन्हें इतना जान सकने के बाद निःसंदेह यह कह सकता हूँ कि जब कभी मुझसे कोई आदर्श पत्रकार के गुणों के बारे में पूछेगा तो उसका जवाब सिर्फ एक होगा वह 'प्रोफेसर कमल दीक्षित।' उनका जाना मेरे लिए एक गुरु और सच्चे मार्गदर्शक का चले जाना है।







स्वर्गीय कमल दीक्षित सर.










Thursday 17 September 2020

अंग्रेजी को लेकर मन के भ्रमजाल का सफाया करती है संक्रान्त की यह किताब


भोजन और वेशभूषा की तरह भाषा हमारी संस्कृति और संस्कारों की मुख्य वाहक होती है। हमारा वातावरण हमारी भाषा को प्रभावित करता है। भाषा लोकतंत्र की वाणी भी है और व्यवहार भी। एक सभ्य लोकतंत्र, राजनीति के पक्ष-प्रतिपक्ष, समर्थन-विरोध या प्रकृति-संस्कृति का ही लोकतंत्र नहीं होता। वह भाषा का लोकतंत्र भी होता है। 'अंग्रेजी माध्यम का भ्रमजाल' पुस्तक के लेखक संक्रान्त सानु ने पुस्तक की भूमिका में बहुत ही सरल शब्दों में स्पष्ट किया है कि कैसे बहुभाषी राष्ट्र भारत में अंग्रेजी का प्रभुत्व होने से देश में हिंदी तथा अन्य भाषाई लोगों के बीच एक बड़ा मतभेद एवं मनभेद पैदा हुआ है। संक्रान्त ने कानपुर से दिल्ली के बीच उनकी बस यात्रा में घटित घटना क्रम का उल्लेख कर इस बात का बेहतरीन उदाहरण भी दिया है।

इस पुस्तक में लेखक ने अंग्रेजी भाषा के भ्रमजाल से आर्थिक व सांस्कृतिक परिणामों, हमारे विचारों और नीतियों में आए अंतरों के अध्ययन के आधार पर भारत के पिछड़ेपन की वजह बताया है। यही नहीं, भाषा के संदर्भ में लेखक ने विभिन्न विकसित व विकासशील एवं निर्धन देशों का विश्लेषण तथ्यों एवं आंकड़ों के साथ बहुत ही सरल ढंग से किया है। पुस्तक में उदाहरण के साथ बताया गया है कि कैसे भाषा किसी देश की आर्थिक स्थिति को प्रभावित करती है। 20 सर्वाधिक धनी व 20 सर्वाधिक निर्धन राष्ट्र के प्रति व्यक्ति जी.एन.पी.(सकल राष्ट्रीय उत्पाद) , वहां की जनभाषा और राजभाषा के विश्लेषण को देखेंगे तो आसानी से समझ सकेंगे कि निर्धन राष्ट्रों में स्थानीय भाषा का राजभाषा अर्थात कामकाज की भाषा ना होना विकास में बाधक है। क्योंकि स्थानीय भाषा में शिक्षित लोगों को प्रगति के लिए अद्रश्य बाधा का सामना करना पड़ता है। ऐसी स्थिति में उपनिवेशवादी अन्यों की अपेक्षा हमेशा ऊपर उठा रहता है।

भारत समेत ऐसे तमाम देश हैं जहां जनभाषा और राजभाषा में अंतर होने से उन देशों की अपनी जनसंख्या का बहुत कम भाग बौद्धिक रूप से विकसित हो पाता है। भारत में अंग्रेजी भाषा के पक्ष में इस तरह के भेदभावपूर्ण रवैये की वजह सरकारी नीतियां ही हैं। 'अंग्रेजी माध्यम के भ्रमजाल' पुस्तक में संदर्भित श्री धर्मपाल की किताब 'द ब्यूटीफुल ट्री' में 19वीं सदी की शुरुआत में यानि प्रारंभिक ब्रिटिश काल के समय भारत में प्राथमिक, माध्यमिक एवं उच्च शिक्षा व्यवस्था का पता चलता है। श्री धर्मपाल के अनुसार 1822-1825 के बीच भारतीय स्कूलों की स्थिति इंग्लैंड से बहुत बेहतर थी। पठन एवं पाठन स्थानीय भाषाओं, संस्कृत एवं फ़ारसी भाषा में होता था। लेकिन विरोधी ताकतों ने भारत में बहुत ही नीतिगत ढंग से हमारी शिक्षा व्यवस्था को ध्वस्त करने का प्रयास किया। यही नहीं अंग्रेजी हुकूमत ने सुन्योजित ढंग से भाषा के आधार पर हमारे ही बीच विभेद पैदा किया, जो आज तक बना हुआ है।  

भाषा से किसी भी व्यक्ति के ज्ञान के स्तर को तय नहीं किया जा सकता। फिर भी कान्वेंट स्कूल के अंग्रेजी उच्चारण वाले वर्ग को सर्वोच्च स्थान पर रखा जाता है। जबकि उनकी तुलना में निजी या सरकारी स्कूलों में पढ़े एवं कम संशोधित अंग्रेजी बोलने वालों को द्वितीय स्थान पर रखा जाता है। यहां तक की अंग्रेजी उच्चारण में स्वयं को असहज पाने वालों को असभ्य या अनपढ़ मानकर समाज में इससे नीचे के पायदान पर धकेल तिरस्कृत किया जाता है। मैं इस पुस्तक के बारे में आगे लिखूं इससे पहले खुद के साथ घटित घटना का उल्लेख करना चाहूंगा। कक्षा पांचवीं की पढ़ाई के बाद मेरे अभिभावकों ने मुझे कक्षा छटवीं में यह कहते हुए अंग्रेजी माध्यम स्कूल में दाखिला लेने के लिए कहा कि यदि खुद का बेहतर भविष्य बनाना चाहते हो तो अंग्रेजी सीखो। इससे यह समझा जा सकता है कि भारत एक बहुभाषी राष्ट्र होने के बावजूद यहां की शिक्षा व्यवस्था में अंग्रेजी को इतनी अहमियत दी जाती है और उसे प्रथम स्थान दिया गया है। यहां मैं स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि मैं अंग्रेजी समेत किसी भी भाषा का आलोचक नहीं हूँ।

इस पुस्तक में ऐसे अनेक सरलतम उदाहरण दिए हैं जिससे भाषा का किसी राष्ट्र के विकास में महत्व को आसानी से समझा जा सकता है। लेखक ने भारत समेत तमाम देशों की राजभाषा और जनभाषा के अंतर से उपजी समस्याओं का तर्कपूर्ण विश्लेषण किया है। साथ ही उन्होंने इस समस्या के निराकरण हेतु महत्वपूर्ण सुझाव भी दिए हैं। हमारे देश में जब भी अंग्रेजी को मुख्य भाषा ना मानते हुए इसके वैकल्पिक भाषा पर विचार किया जाता है तो अक्सर हमारे देश के भिन्न-भिन्न प्रांतो से विरोध के स्वर उठने लगते हैं। उस विवाद के निराकरण हेतु संक्रान्त सानु ने यूरोपीय संघ का उदाहरण देते हुए बताया है कि यूरोपीय संघ की चौबीस वैकल्पिक भाषाएं हैं, यूरोपीय संघ की वेबसाइट पर चौबीस की चौबीस भाषाएं उपलब्ध हैं। उनकी फ़ोनलाइन्स एवं अन्य संचार माध्यम चौबीसों भाषाओं में उपलब्ध हैं। उनकी चौबीसों भाषाओं में से किसी भी भाषा में से उनसे संपर्क किया जा सकता है। जबकि पुरे यूरोपीय संघ की अपेक्षा भारत की जनसंख्या लगभग डेढ़ गुना है। इसी तरह भारत की केंद्र सरकार को भी सभी मुख्य 22 भाषाओं को बढ़ावा देना चाहिए। ऐसा करने के लिए अनुवादकों के साथ-साथ मशीनी अनुवाद की भी मदद ली जा सकती है।

तमिल के व्यक्ति को तेलुगु में, बंगाल के व्यक्ति को बंगाली में, गुजरात के गुजराती में और इसी तरह अन्यों को भी उनकी स्थानीय भाषाओं में ही रोजगार मिलने के विकल्प से हमारे विवाद भी खत्म हो सकते हैं और हमारी सांस्कृतिक विरासत को और भी मजबूत बना सकते हैं। संक्रान्त सानु प्राथमिक शिक्षा में अंग्रेजी माध्यम(कान्वेंट स्कूल) व उच्च शिक्षा में आई.आई.टी. जैसे संस्थान के विद्यार्थी रहे हैं। वे माइक्रोसॉफ्ट जैसी अंतरराष्ट्रीय कम्पनी के प्रबंधक रहे हैं। उन्होंने इस पुस्तक में कई देशों की उनकी यात्राओं और उन देशों की भाषाई व्यवस्था के गहन अध्ययन का सार प्रस्तुत किया है। भाषा भी किसी देश की अर्थव्यवस्था को इतना प्रभावित कर सकती है यह इस पुस्तक को पढ़ने से पहले मैंने कभी नहीं सोचा था।

इस पुस्तक का पहला संस्करण वर्ष 2015 में आया था। जब हम बहुत ध्यान से हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुवाई वाली सरकार द्वारा लाई गई नई शिक्षा नीति 2020 का अध्ययन करते हैं तो हम यह पाएंगे की कहीं न कहीं संक्रान्त सानु द्वारा इस पुस्तक में बताये गए सुझावों जैसे 3 लैंग्वेज फ़ॉर्मूले की बात की गई है। जिसमें कक्षा पाँच तक मातृ भाषा/ लोकल भाषा में पढ़ाई की बात की गई है। साथ ही ये भी कहा गया है कि जहाँ संभव हो, वहाँ कक्षा आठ तक इसी प्रक्रिया को अपनाया जाए। संस्कृत भाषा के साथ तमिल, तेलुगू और कन्नड़ जैसी भारतीय भाषाओं में पढ़ाई पर भी ज़ोर दिया गया है। उच्चत्तर माध्यमिक शिक्षा में भी भाषा की पढ़ाई को वैकल्पिक बनाया गया है। हालांकि यह नीति कितनी सफल होगी यह तो भविष्य ही बताएगा।

152 पृष्ठों में लिखिति यह किताब हमारे मन के अंग्रेजी माध्यम के भ्रमजाल का सफाया करने के लिए सर्वश्रेष्ठ कृति है। इस पुस्तक को प्रभात प्रकाशन, दिल्ली ने छापा है। इसकी कीमत मात्र 200 है। मूल रूप से यह किताब अंग्रेजी में लिखी गई है, इसका हिंदी अनुवाद सुभाष दुआ ने किया है। यह किताब ऑनलाइन माध्यमों पर भी उपलब्ध है।


पुस्तक: अंग्रेजी माध्यम का भ्रमजाल

लेखक: संक्रान्त सानु

हिंदी अनुवादक: सुभाष दुआ

मूल्य: 200 रुपये

प्रकाशक: प्रभात प्रकाशन, 4/19 आसफ अली रोड, नई दिल्ली- 110002

संपर्क: prabhatbooks@gmail.com

Saturday 28 March 2020

काश! दुआएं ही दवा बन जाएं

हमारे लिए अब कोरोना अपिरिचित शब्द नहीं रहा। टिक टिक करती घड़ी की सुईयों के साथ विश्व भर में कोरोना से मरने एवं उससे प्रभावित लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है। भारत ही नहीं पूरा विश्व इससे प्रभावित हो रहा है। कोविड-19 के इस प्रहार ने दुनिया को अपने घरों में रहने के लिए मजबूर कर दिया है।5 नवंबर 2013 को जब भारत के आंध्र प्रदेश के श्रीहरिकोटा स्थित सतीश धवन अंतरिक्ष केंद्र से जब मंगलयान को छोड़ा गया तब हर देशवासी की छाती चौड़ी हुई थी। एक पल को लगा था कि अब चांद पर हमारी पहुंच बहुत दूर नहीं है। वह वाकई खुशी का पल रहा।

लेकिन जबसे कोरोना ने फैलना शुरू किया उसने दुनिया भर की देश की स्वास्थ्य व्यवस्था पर सवाल खड़े कर दिए। इस तरह की स्वास्थ्य आपदा को लेकर हमारा देश कितना तैयार था इसकी पोल अब खुलती जा रही है। अस्पतालों में उपचार दे रहे डाक्टरों के पास उचित गुणवत्ता वाले संसाधन उपलब्ध नहीं है। हमेशा चकाचौंध से भरी रहने वाली देश की राजधानी दिल्ली से लेकर दूर-सूदूर बसे गांव में बैठे लोगों का मन डरा हुआ है। ट्रेन, बसें और हवाईजहाज थमे हुए हैं। भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जब लाकडाउन की घोषणा की उसी क्षण से करोड़ों लोगों के लिए दो जून की रोटी का खतरा उन पर मंडरा गया।
केंद्रीय एवं राज्य सरकारें दावा कर रहीं हैं कि वे किसी को भूखा नहीं रहने देंगी। लाकडाउन एवं कई शहरों में लगे कर्फ्यू ने ट्रांसपोर्ट व्यवस्था की रीढ़ की हड्डी तोड़ दी है। जरूरत मंदो को भरपेट खाना खिलाने का दावा चाहे सरकार लाख दावा कर रही हो लेकिन जमीनी स्थिति कुछ और ही है। लोगों को खाना खिलाने की कोई व्यवस्थित योजना सरकार नहीं बना पाई। लिहाजा जिन्हें वास्तविक खाने की जरूरत है वह भूखे पेट सोने को मजबूर है।

अगर मध्यप्रदेश को लेकर बात की जाए तो मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने राशन मुफ्त में मुहैया कराने की घोषणा की है लेकिन लोगों को सही समय पर राशन अब भी नहीं मिल पा रहा है। मध्यप्रदेश सरकार की कोई प्रोपर योजना जमीन पर नहीं दिख रही है। इंदौर और उज्जैन जैसे शहरों के दवाखानों पर दवाइयां खत्म होने की कगार पर है। प्रदेश के कुछ जिलों में अब अन्य चीजों की तरह दवाओं की भी होम डिलेवरी करने बात कही जा रही है। ऐसे में जिन्हें दवाओं की सख्त आवश्यकता है वे बहुत परेशान हो रहे हैं। मध्यप्रदेश के शाजापुर जिले में शहर से दूर झुग्गी बनाकर रहने वाले मूर्तियां बनाने वाले एक मूर्तिकार ने बताया ने बताया कि हमसे अपनी झुग्गी से बाहर नहीं निकलने के बारे में तो कह दिया गया है लेकिन अब तक हमसे हमारे खाने के बारे में कोई पूछने नहीं आया। इस मूर्तिकार की तरह अनेक लोग सरकार की ओर बहुत उम्मीद भरी नजरों से देख रहे हैं तो कुछ हिम्मत हारने लगे हैं। अनेक लोगों के परिजन अन्य शहरों में अब भी फंसे हुए हैं। कुछ ने तो सैंकड़ों किलोमीटर चलकर घर पहुंचने के लिए निकल चुके हैं। जब एक्सपर्ट्स के लिखे लेख पढ़ते हैं तो रूह कांप उठती है। केंद्र सरकार ने दूरदर्शन पर रामायण प्रसारण की शुरुआत कर दी है। केंद्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर सहित अन्य मंत्रियों और भाजपा नेताओं ने रामायण के पहले ऐपिसोड को घर पर देखते हुए फोटो ट्वीट किया तो वे जमकर ट्रोल हुए। लिहाजा मंत्री प्रकाश जावड़ेकर को तो थोड़ी ही देर में अपना फोटो डिलीट करना पड़ा।

सोशल मीडिया में फेक खबरों की बाढ सी आ गई है। पहले जबलपुर पुलिस द्वारा घर से बाहर निकलने पर गोली मारने वाली वीडियो वायरल हुई। फिर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह के नाम से 1 अप्रैल से लोगों के घरों में बाहर से ताला लगने वाली चिट्ठी जमकर वायरल हो रही है। कुच असमाजिक तत्व इस समय में भी स्थानीय शासन को सहयोग की बजाय मुसीबत बने हुए हैं। जारी किए गए सहायता नंबरों पर हर रोज अनेक लोग बेवजह ही फोन कर परेशान कर रहे हैं। ऐसे में प्रशासन के सामने भी चुनौतियां कम नहीं हैं। यह महामारी कब तक और कितना प्रभावित करेगी यह कह पाना मुश्किल ही है। हर  जिस तरह से सब कुछ बदल रहा है। यह देख लग रहा है कि काश! दुआएं ही दवाएं बन जाएं तो कितना अच्छा हो।


✍🏼 सोहन दीक्षित
#लॉकडाउन #gocorona #corona #IndiaFightsCorona #india #corona_virus #covid_19 #jantacurfew #lockdown #सोहन_दीक्षित #sohan_dixit


Sunday 26 January 2020

गण और तंत्र की बात

भारतीय इतिहास के सुनहरे दिन गणतंत्र दिवस पर इस बार मैं अपने नांदनी गांव में था। मध्यप्रदेश के शाजापुर जिले के कालापीपल से दस किलोमीटर दूरी पर बसा यह गांव मेरे लिए बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि मैंने अपना बचपन यहां जिया है। यहां की मिट्टी मेरे लिए बेहद खास है। गणतंत्र का अर्थ मैंने यहां के माँ शारदा स्कूल और फिर जय हिंद स्कूल से सीखा। असल में मैं यहां अपनी जीवन गाथा नहीं बताना चाहता, मैं सिर्फ अपने मन में  निरंतर चल रही बातों को आपके साथ साझा करना चाहता हूँ। जो मैने सीखा था वह यह कि गण का अर्थ इस देश की जनता और तंत्र का मतलब देश की व्यवस्था। गण और तंत्र (गणतंत्र) को मिला दिया जाए तो इस अर्थ हो जाता है कि 'देश की व्यवस्था देश की जनता के हाथों में' यानि जनता ही सर्वे सर्वा है।

सत्तर साल पहले संविधान बनने से लेकर लागू कराने का उद्देश्य शायद यही रहा कि देश कि हम लोकतांत्रिक हों। लोकतंत्र की अवधारणा को अपनाते समय शायद यही विचार केंद्र में होगा कि देश की आवाम को स्वतंत्रता, न्याय व समानता मिले। इसलिए संविधान के तीन स्तंभ विधायिका, न्यापालिका व कार्यपालिका बनी होगी। फिर इन सब पर निगरानी के लिए चौथे स्तंभ के रूप में प्रेस(मीडिया) को माना गया। इस सब व्यवस्थाओं को अलग-अलग जिम्मेदारियां मिली। जब इन व्यवस्थाओं को लागू किया गया तब यह माना जाने लगा कि अब कोई भी व्यक्ति उसके अपने अधिकारों से वंचित नहीं रहेगा। जात-पात का भेदभाव समाप्त होगा। समाज में अशिक्षा नहीं होगी। गरीबी नहीं रहेगी। किसी के साथ अन्याय नहीं होगा। संविधान ने हमें निर्वाचन प्रक्रिया के माध्यम से अपने विवेक के अनुसार अच्छे और बुरे में फर्क कर हमें अपना नेता चुनने की शक्ति दी। कई सरकारें आईं भी और गईं भी। सबका अपना और अलग इतिहास रहा। 

तमाम तरह के इतिहास की तरह ही यह सब भी अब इतिहास हो चुका है। सत्तर साल के इस इतिहास में देश ने बहुत कुछ पाया और बहुत कुछ खोया भी बहुत कुछ। भारत ने बैलगाड़ी से लेकर आकाश की उड़ान तक भरी। नए-नए आविष्‍कारों और तकनीकी विकास से भारत विश्‍व ने वैश्विक स्तर पर अपनी अच्छी पहचान बनाई। भारत ने न सिर्फ अपनी सैन्‍य शक्ति का विस्‍तार किया है बल्कि अंतरिक्ष में अपने उपग्रह स्‍थापित कर सैटेलाइट की दौड़ में अपना अग्रणी स्‍थान भी बनाया। संचार क्रांति ने भी नई इबारत लिखी। वैश्विक स्तर पर भारत ने अच्छी पहचान तो बना ली लेकिन देश में अंदरूनी तौर पर नकारात्मक शक्तियों के कारण खासा निराशा हाथ लगी। 

अब चुनावों के दौरान हमें अच्छे या बुरे में अंतर करके नहीं बल्कि बुरे और कम बुरे में अंतर करके अपना नेता चुनना है। गणतंत्र में हमें बोलने का अधिकार तो है लेकिन बोलने वाले को कुर्सी पर आसीन अधिकारी/जनता मूर्ख समझते हैं, बोलने वाले को नासमझ और बेवजह का हल्ला करने वाला बता दिया जाता है। जब न्यायपालिका बनी तब यही अवधारणा रही होगी कि किसी के साथ कोई अन्याय नहीं होगा। लेकिन आज की न्यायिक प्रक्रिया के हालात किसी से छिपे नहीं। यदि किसी आम व्यक्ति के साथ कोई अन्याय होता है तो उसे थाने की चौखट पर जाने में हिचकिचाहट होती है। और जो थाने में चला जाता है वह कई बार न्यायिक प्रक्रिया की तारीखों में ही फंसा रह जाता है। भुगतभोगी को देखकर अन्य लोगों के मन में कचहरी को लेकर शंसय पैदा होने लगता है।

विधायिका और कार्यपालिका को ही ले लीजिए, अब किसी भी राजनैतिक दल के नेता किसी सर्कस के जोकर से कम नहीं लगते जो तंत्र में रहकर गण का केवल मनोरंजन करते हैं। चुनाव के पहले ईमानदारी का ढोल पीटने वाले ये नेता चुनाव बाद अनेक तरह के वसूली अभियान चलाकर अपनी और अपने पिछलग्गुओं की जमकर खातिरदारी करते हैं। मीडिया जिसकी जिम्मेदारी वंचित समूदाय की आवाज को बुलंद करना एवं अन्य तीन स्तंभों की नाकामयाबी को उजागर करना था वह भी पिछलग्गुओं की दौड़ में शामिल हो गया। लिखते हुए मुझे तनिक संकोच नहीं है कि संविधान से मिली मजबूत नींव सत्ता धारियों ने खोखली कर दी जो अब जमींदोज होने की स्थिति में है। अब गण एक छोर पर है तो तंत्र दूसरे छोर पर। दोनों के बीच समन्वय लगभग शून्य के बराबर है। छत्तीसगढ़ के एक वरिष्ठ साहित्यकार व लेखक द्वारिका प्रसाद अग्रवाल ने व्यंग्यात्मक ढंग से अपने एक लेख में लिखा कि ऐसा नहीं है हमारे देश ने कोई प्रगति नहीं की। उन्होंने पुलिस का उदाहरण देते हुए बताया कि आजादी के पहले पुलिस के हाथों में बंदूक और डंडा था। अब पुलिस के हाथों में स्टेनगन है। जो कि लोक की सुरक्षा में नहीं, तंत्र की सुरक्षा में तैनात हैं। लोक अपनी रक्षा खुद करे। जब तंत्र ही नहीं रहेगा तो लोक किस काम का। 

बेशक 26 जनवरी यानि गणतंत्र दिवस संविधान को समर्पित दिन है। हमें हमारे देश के संविधान पर गर्व है। लेकिन संविधान के उस मीठे इतिहास को दोहराने से अच्छा है कि हम उस पर मनन करें। कहा भी तो गया है कि अधिक मीठा स्वास्थ्य के हानिकारक होता है। जब ये सारी बातें मेरे मन में चल रही थीं तभी गांवों के स्कूलों की रैलियों से छोटे छोटे बच्चों की नारों की बुलंद आवाज सुनाई दी। 'देश की रक्षा कौन करेगा- हम करेंगे, हम करेंगे', 'महात्मा गांधी- अमर रहे', 'वंदे-मातरम'। फिर मन ही मन खुश हुआ और खुद से कहा कि अभी बहुत उम्मीद बाकी है। हो सकता है मेरे अपने गांव नांदनी से फिर कोई सत्याग्रह का बड़ा आंदोलन शुरू हो जो चम्पारण जैसा हो।

फोटो उसी अवसर के हैं-

Wednesday 2 October 2019

अंजाने ही सही परंतु हम अपने विरोध के तरीके से स्वंय को पीछे करते हैं


हमारा देश दुनिया का सबसे बडा लोकतांत्रिक देश है, परन्तु जब भी हमारे देश में हम अपनी किसी मांग को लेकर विरोध प्रदर्शन करते है तो जाने अंजाने हम अपने देश को पीधे कर देते हैं और जैसा सर्वविधित है कि किसी भी राष्ट्र के विकास में प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से उसके राष्ट्र के प्रत्येक नागरिक का अहम योगदान होता है। यह सब जानते हुए भी अनेक पढ़े लिखे लोग बहुत बड़ी भूल कर बैठते है और अपने विरोध करने के तरीके से अपने ही देश को पीछे करने में कसर नहीं छोड़ते। न जाने क्यों हम यह सोच लेते है कि यदि हम काम बंद कर दे तो इससे जनता का फायदा हागा, व अर्थव्यवस्था गडबडा जाएगी, आखिर क्यों हम यह नहीं सोचते की कहीं न कहीं ऐसा करने से अप्रत्यक्ष रूप से हम स्वयं प्रभावित होंगे।


क्या हम विरोध के लिए जापान के लोगो से सीख नहीं ले सकते? जैसे हाल ही में जापान की एक बस कंपनी के स्टाफ ने अपनी किन्ही मांगो को लेकर हड़ताल कर दी, उनके इस प्रकार के रवैये को यदि हम गांधीवादी कहें तो गलत नहीें होगा क्योंकि बस स्टाफ के लोग हडताल तो कर रहे थे परंतु इस तरीके से की मुसाफिरों को किसी भी प्रकार की परेशानी नहीं हो रही थी , दरसल वे अपनी हडताल के दौरान काम तो कर रहे थे परंतु यात्रियों से किराया नहीं ले रहे थे इस प्रकार कंपनी को नुकसान तो हुआ लेकिन आम आदमी को किसी भी प्रकार का कोई परेशानी का सामना नहीं करना पड़ा। यह अपने आप में बहुत बड़ी बात है, यदि हमें अपनी आवाज बुलंद करनी है तो वह इस तरह से होनी चाहिए कि हमें जिसे प्रभावित करना है सिर्फ वहीं प्रभावित हो सके, अन्य किसी पर उसका कोई प्रभाव न हो।

Wednesday 15 May 2019

शिक्षा में नंबरों से अधिक गुणवत्ता की बात की जाए तो...?

बीते दिनों केंद्रीय विद्यालय(केंद्रीय बोर्ड) अर्थात सीबीएसई के 12वीं और 10वीं के नतीजे घोषित हुए और अब हमारे मध्यप्रदेश में भी मांशिम अपने नतीजे घोषित कर दिए हैं। आज इस लेख में मैंं दोनों ही संस्थानों द्वारा घोषित किए गए परिणाम पर अपने स्वयं के विचार व्यक्त करूंगा।

इस बार नतीजे नंबरों की ऐसी आंधी-तूफान लेकर आए हैं कि 90-95% वाला स्वयं को ठगा और फिसड्डी महसूस कर रहा है। नंबरों के यह बड़े-बड़े पहाड़ बच्चों के सपनों को छोटा बना रहे हैं। कुछ बच्चों का स्वयं के प्रति अपना विश्वास भी कमजोर हो रहा है। मैं 500 में से 499 अंकों को लाना गलत नहीं ठहरा रहा।
दरअसल मेरा प्रश्न व मेरी जिज्ञासा यह जानने की है कि जो बच्चे 500 में से 460, 465 या उससे अधिक अथवा उससे कम अंक लेकर आए हैं क्या वे सफलता के सभी आयामों को छू लेने के अधिकारी नहीं रह गए। सफलता का यह मानक इतना डरावना क्यों है कि जो बच्चे अधिक अंक हासिल नहीं कर सके वे स्वयं को पिछड़ा हुआ महसूस करें। आज हमारे समय में अच्छे नंबर लाना मन में एक दबाव बनाता है।
अच्छे अंको का यह खेल सिर्फ स्कूली बच्चों के लिए नहीं उनके अभिभावकों के लिए भी भूल भुलैया सा बन गया है। दरअसल, जब अंको की दौड़ में छात्र पिछड़ जाते हैं तो उनके माता-पिता एवं रिश्तेदारों से कड़वाहट एवं मानसिक प्रताड़ना मिलती है। जो उन्हें समाज में पिछड़ा होना बोध कराती है फिर बच्चों को यह लगने लगता है कि सिर्फ वे ही नहीं अपितु उनके वजह से उनके अभिभावक भी समाज से पिछड़ गए हैं।
मेरा यह मानना है कि सिर्फ अच्छे नंबर लाना ही सफलता का मानक तय नहीं करता। यदि नंबर ही सफलता का मापदंड तय करता तो वह सारे छात्र आज कहां गए जो पिछले कुछ सालों में टॉप पर आए थे? हो सकता था कि वे पूरे विश्व में सफलता के नए आयाम स्थापित कर रहे होते।
इस बात को अनेक खिलाड़ी अभिनेता एवं अनेक क्षेत्रों में परचम लहरा रहे लोग साबित कर चुके हैं। मेरा व्यक्तिगत तौर पर यह मानना है कि आज की शिक्षा प्रणाली काबिल तो बिल्कुल नहीं बना रही सिर्फ नंबरों के पीछे भागना सिखा रही है। इसलिए यह आवश्यक हो गया है कि अब नंबरों की रेस से आगे आकर शिक्षा का नया स्वरूप बनाएं जहां नंबरों की चर्चा ना हो। सरकार को भी बेहतरी की दिशा में कदम उठाना चाहिए।


Wednesday 31 October 2018

चुनाव आयोग को अभी और भी मजबूत होने की आवश्यकता

     लोकतांत्रिक प्रणाली में चुनाव अथवा मतदान का बहुत महत्व है, इसके माध्यम से जनता शासन व्यवस्था में अपनी भागीदारी तय कर सकती है । लेकिन भारत में मतदान करना किसी के लिए अनिवार्य नहीं है ।
     हमारे देश की चुनाव प्रणाली है ही ऐसी, कहने को तो लोकतंत्र जनता का, जनता के लिए, और जनता के द्वारा है, किंतु ऐसा महसूस केवल चुनाव के दौरान ही होता है। ईश्वर का शुक्र है कि उसने चुनाव आयोग नाम की एक कठोर और ठोस व्यवस्था हमारे देश में बनाई। जिससे अपने मत के प्रयोग करने का मौका प्रत्येक मतदाता को मिलने लगा है।
     अन्यथा बढ़ती हुई इस गुंडागर्दी के इस दौर में मतों पर वैसा ही डाका पढ़ता रहता जैसा कि पहले पढ़ता आया है। अगर वैसा ही आगे लगातार चलता रहता तो वह दिन दूर नहीं होता जब मतदाताओं के वोटों का ठेका गुंडे और मवालियों के हाथों बिकने लगता।
     आज अनेक बदलावों के बावजूद भी लोकतंत्र में चुनाव आयोग को और भी शक्तिशाली बनाने की आवश्यकता है। यह काम हमारे केंद्र के जनप्रतिनिधियों को ही करना पड़ेगा। हमारे देश की लोकतांत्रिक चुनाव प्रणाली की विशेषता है कि यहां जीतने वाले अधिकांश जनप्रतिनिधि मतदाताओं के वास्तविक बहुमत से दूर रहते हैं। देश में चुनाव आयोग को और देश की संसद के माननीय सदस्यों को इस और ध्यान देना होगा ।
     मतदान अनिवार्य करने के लिए कुछ अन्य देशों की तरह कदम उठाना होगा, बिना समुचित कारण के मतदान ना करने वालों को दंडित करना होगा । चुनाव आयोग को अपराधियों से और उनकी छाया से जनप्रतिनिधियों को दूर रखना होगा।
     चुनाव की दिशा में एक अन्य महत्वपूर्ण सुझाव वांछनीय है कि प्रत्याशी को दो चुनाव क्षेत्रों से चुनाव लड़ने की इजाजत ना मिले। उन क्षेत्रों के प्रति अविश्वास का प्रदर्शन करना सही नहीं है। ऐसा होता भी है कि एक ही प्रत्याशी दोनों चुनाव क्षेत्रों में जीतता है तो एक चुनाव क्षेत्र से त्यागपत्र देने के कारण दोबारा चुनाव में जो लाखों करोड़ों का खर्च सरकार या अप्रत्यक्ष रूप से जनता क्यों करें ।
लोकतांत्रिक चुनाव प्रणाली में युवाओं की भूमिका की करें तो निश्चित ही यह कहना गलत नहीं होगा कि पूरे लोकतंत्र को मजबूत बनाने के लिए चुनाव प्रणाली में युवाओं की प्रभावी भागीदारी सुनिश्चित करने की आवश्यकता है। आज के दौर में भारत में सबसे अधिक साक्षरता वाला तपका युवाओं का ही है। जो फर्जी खबरों (फेक न्यूज़), साइबर जगत में डाटा की गड़बड़ी और मतदाताओं को प्रभावित करने वाले संदेशों को सोशल मीडिया के जरिए प्रसार करने जैसी चुनौती को बेअसर करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। भारत में चुनाव प्रणाली को और भी मजबूत बनाने युवाओं को विशेष तौर पर स्कूल और कॉलेज के छात्रों को चुनाव प्रक्रिया से जुड़ने के लिए प्रेरित करने की अत्यधिक आवश्यकता है।



पत्रकारिता के चलते फिरते विश्वविद्यालय का यूँ चले जाना…

मुलयनिष्ठ पत्रकारिता के लिए अपना जीवन समर्पित करने वाले प्रो.कमल दीक्षित भले ही अब सशरीर हमारे बीच नहीं हैं। लेकिन वे मूल्यनिष्ठ पत्रकारिता ...